या देवी सर्वभूतेषु
शंभूनाथ शुक्ल
दुनिया के सारे पुराणों में मातृका को देवी माना गया है। मातृका देवियां सिर्फ भारत में ही नहीं हैं, बल्कि यूरोप के रोमन और ग्रीक पुराणों में भी मौजूद हैं। वहां भी उनकी ताकत वैसी ही है, जैसी कि भारत की नवदुर्गाओं में। नवदुर्गा सिर्फ नौ दिनों की पवित्रता और इस बहाने देवी पूजा का ही पर्व नहीं है, बल्कि भारतीय समाज में स्त्रियों की शक्ति का प्रतीक भी है। पुरुष सत्ता के पूर्व भारतीय समाज में स्त्रियों को वे अधिकार प्राप्त थे जो आज पुरुषों को हैं। लाख बराबरी की बात की जाए पर सच यह है कि आज भी समाज में पुरुष की सर्वोच्च सत्ता तो है ही और स्त्रियों को गौण स्थिति में रहना पड़ता है। पर नवरात्रि पूजन अथवा नवदुर्गा की चहल-पहल से यह तो लगता ही है कि एक युग वह भी था जब भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति कहीं ज्यादा मजबूत और पुरुष के मुकाबले उच्चतर थी। नवदुर्गा इसी स्त्री शक्ति की प्रतीक हैं। हर साल में दो बार नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। एक बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक तथा दूसरी बार अाश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक। कुछ लोग इसे नवान्न का उत्सव भी मानते हैं। यानी फसल कट कर घर आने का पर्व। एक बार रबी की फसल कट कर आने का तो दूसरी खरीफ की फसल राेपाई का। पूरे उत्तर भारत में यह पर्व नवान्न का द्योतक है और मौसमी बीमारियों के प्रकोप बढ़ने का भी। इसीलिए वात, पित्त, कफ के रोगी सब को इन दिनों व्रत करने की मुनादी की गई। उत्तर भारत में मौसम का चक्र सर्दी, गर्मी और वर्षा अपने समय पर ही आते हैं इसलिए मौसम के संधिकाल में बीमारियां भी बढ़ती हैं। इसलिए आयुर्वेदिक परंपरा के अनुसार उनको लंघन यानी कि व्रत करने की अनुशंसा की जाती है।
मगर संभवत: व्रत और पारायण की यह परंपरा तब आई होगी जब वैष्णव संप्रदाय फला-फूला होगा। इसीलिए शाक्त परंपरा की देवियों का वैष्णव परंपरा में विलय हुआ और यह नवरात्रि बजाय मातृका देवियों की प्रथम सत्ता को स्थापित करने के राम नवमी और विजयादशमी से जोड़ दिया गया। वैष्णव संप्रदाय के रामभक्त इस नवरात्रि यानी चैत्र की नवरात्रि को भगवान राम के जन्म दिवस के रूप में मनाते हैं और अाश्विन की नवरात्रि को लंका विजय के उपरांत राम के अयोध्या लौटने की रीति के तौर पर। पर नवरात्रि को भगवती दुर्गा के नौ रूपों के तौर पर मनाने की ही मान्यता असल है। प्रथम दिवस शैलपुत्री की पूजा से शुरू होकर नवमी को सिद्धदात्री के पूजन से यह पर्व समाप्त होता है। ये भगवती दुर्गा के नौ रूप हैं, जिन्हें शैव पार्वती के नौ रूप मानते हैं तो शाक्त देवी के नौ रूप। शैलपुत्री के बाद ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि और अष्टमी को महागौरी का पूजन किया जाता है। अंत में महागौरी के बाद यह पूजा उठा दी जाती है। देवी भगवती पुराण के अनुसार ये नौ देवियां मातृका हैं और हमारी आदिम सभ्यता व संस्कृति की रक्षक। मान्यता है कि इनके पूजन से मनुष्य की इच्छापूर्ति होती है और देवी उस पर प्रसन्न होती है। कुछ श्रद्धालु इन दिनों दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। संपूर्ण पूर्वी भारत और हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले लोग आमतौर पर देवी पूजक होते हैं। पर जहां उत्तर भारत में देवी निरामिष मानी गई हैं वहीं पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में देवी बलि को स्वीकार करती हैं। इसीलिए बंगाल और असम में क्रमश: कालीदेवी और कामाख्या देवी पर बलि चढ़ाना शुभ समझा जाता है। जबकि हिमालय के उत्तरी राज्यों में चाहे वे हिमाचल की छिन्नमस्ता हों या कांगड़ा की ज्वाला देवी अथवा चामुंडा या अन्नपूर्णा और जम्मू की वैष्णो देवी में बलि चढ़ाने की मनाही है।
आज के संदर्भ में देखा जाए तो भगवती पूजा एक तरह से स्त्री सशक्तीकरण का ही एक रूप है। महिलाओं को शक्ति रूप में स्वीकार करने का यह एक जरिया है। यूं भी भारतीय समाज में स्त्री को देवी का ही स्वरूप माना गया है। और कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात जहां स्त्री की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं। एक समाज में जहां स्त्री काे उसका वाजिब हक नहीं मिलता, वहां आज स्त्री पल-पल मरने को अभिशप्त है। यह अवश्य सोचने की बात है। आज ऐसा कैसे हो गया कि देवी की पूजा इतने विधि-विधान से करने के बावजूद स्त्री का वास्तविक रूप में सम्मान नहीं करते हैं। लेकिन ऐसा सिर्फ मैदानी समाज में है। आदिवासी और उत्तर पूर्व में स्त्री को काफी अधिकार प्राप्त हैं। खासकर मेघालय, मिजोरम और मणिपुर में। वहां पर स्त्रियां हर तरह का बाहर का काम करती हैं लेकिन क्या मजाल कि कोई उनका बाल बांका भी कर सके। मगर इसके विपरीत दिल्ली जैसे महानगरों में महिलाएं यदि रात आठ बजे तक घर नहीं पहुंचें तो घर वाले बेचैन हो उठते हैं। मजे की बात कि जहां स्त्रियों को इतनी आजादी है, वहां पर महिलाओं को पूजने की परंपरा नहीं है। किसी भी उत्तर पूर्व के समाज में नवरात्रि मनाए जाने की परंपरा नहीं है। मगर वहां पर स्त्रियों को न सिर्फ पूरे अधिकार हैं, बल्कि वहां मेघालय में तो पूरे घर का खर्च चलाती हैं। वहां पान की दुकानों से लेकर चाय और जलपान की दुकानें भी वही चलाती हैं। आज भी वहां एक परंपरा है कि घर की सबसे छोटी बेटी को पूरे घर का उत्तराधिकार मिलता है और वह शादी के बाद भी अपने पति को साथ लेकर अपने मायके में ही रहती है। मेघालय में आज भी स्त्री का सम्मान इतना है कि घर के हर काम में उसकी सहमति जरूरी होती है। पर उसके पूजन की परंपरा वहां नहीं है। स्त्री वहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और वह भी इसलिए क्योंकि वहां पर स्त्री को एक पुरुष के बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। मणिपुर, मिजोरम और नगालैंड में भी यही हाल हैं। असम में भले स्त्री को वह अधिकार नहीं हों पर क्या मजाल कि वहां पर महिलाओं के साथ कोई छेड़छाड़ जैसी घटनाएं हो जाए और समाज चुपचाप देखता रहे। मगर उत्तर भारत में स्त्रियों को जरूरत में न तो पुलिस की मदद मिलती है, न समाज से। सारे अत्याचार उन्हें स्वयं झेलने पड़ते हैं।
आज स्त्रियों से संबंधित जो समस्याएं हैं, वे विंध्य के पार उत्तर भारत और पश्चिम भारत में ही अधिक हैं। दक्षिण और पूर्वी तथा पूर्वोत्तर की महिलाएं अधिकांशत: स्वतंत्र हैं और उनको उन कठिनाइयों और परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता, जिसके चलते उन्हें हर मामले में घर के पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसकी एक मुख्य वजह है कि वहां स्त्रियों को काम करने की आजादी है जिसकी वजह से वे आर्थिक रूप से परतंत्र नहीं हैं और यह आर्थिक स्वतंत्रता उनके अंदर आत्म सम्मान का भाव पैदा करती है। वहां कम ही घर हैं जहां पर महिलाएं काम नहीं करती हों। केरल में चूंकि साक्षरता दर इतनी अधिक है कि वहां की महिलाएं तो विदेश चली जाती हैं नौकरी के लिए। यूं भी पूरे भारत के अस्पतालों में अधिकतर नर्सें तो केरल से ही आती हैं। अभी हाल में ही जब से देश में बीपीओ और कारपोरेट सेक्टर विकसित हुआ है, अधिकतर नौकरियां महिलाओं को मिलने लगी हैं। अब चूंकि उत्तर भारत की महिलाएं अभी भी पढ़ाई में पीछे हैं, इसलिए अधिकतर पूर्वोतर की लड़कियां यहां दिल्ली आती हैं काम करने। अपनी परंपरा के अनुसार उनके अंदर झिझक अथवा पहरावे को लेकर कोई कुंठा या हीनता नहीं होती, इसलिए वे बिंदास रहती हैं। बस यहां के पुरुष प्रधान समाज को स्त्री की यह स्वतंत्रता सहन नहीं होती और दिल्ली तथा अन्य मैदानी शहरों में जो छेड़छाड़ की घटनाएं इधर खूब हुई हैं, उसके पीछे पुरुषों की यही कुंठित मानसिकता है। इसीलिए नवरात्रि में देवीपूजन को यदि इस संकल्प के रूप में लिया जाए कि देवी पूजा नहीं यह महिलाओं को सशक्त करने की दिशा में मनाया जाने वाला पर्व है, तब शायद इस देवी पूजन का असली मकसद पूरा होगा। देवी पूजन का असली मर्म यही है कि स्त्री को उसके पूरे अधिकार दिए जाएं और समाज में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं हो। भ्रूण हत्या जैसा घिनौना कृत्य जो लोग चोरी छिपे करते ही रहते हैं, बंद करना होगा। हालांकि सरकार ने लिंग जांच पर सख्ती से रोक लगा रखी है, पर लोगबाग यह जांच छुप-छुपाकर करा ही लेते हैं और लड़की भ्रूण को प्रसव पूर्व ही मार देते हैं। इसके अलावा उत्तराधिकार में अभी भी बेटे को ही पूरा हक समाज देता है। बेटी को समाज का भय दिखाकर उससे वंचित कर दिया जाता है। नौकरियों में भी उनके साथ भेदभाव बरता जाता है। आमतौर पर पुरुष कर्मचारी महिला बॉस के अधीन काम करना अपनी तौहीन समझते हैं, इसलिए काॅरपोरेट आफिस भी महिलाओं को तरक्की देते वक्त यह देखते हैं कि उनके कर्मचारियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। मगर सौ बात की एक बात कि महिलाएं अगर नौकरी करने लगीं तो वे एक न एक दिन तो पुरुषों की दासता से मुक्त हो ही जाएंगी और तब वे वाकई देवीरूपा होंगी। जब वे दासता की बेड़ियों से मुक्त होंगी। स्त्री को सशक्त करने का समाज प्रयास करे। और इसके लिए उपयुक्त समय है देवी भगवती का पूजन।
शक्ति का नाम नारी
स्त्री की दृढ़ता, उसकी बहादुरी और उसके अपरिमित ज्ञान, बुद्धि और विवेक की तुलना मां दुर्गा से की जाती है। चाहे वह रानी लक्ष्मीबाई रही हों अथवा इंदिरा गांधी। इन दोनों ही महिलाओं की तुलना मां दुर्गा से की गई थी। ये दोनों ही महिलाएं अपनी वीरता और दृढ़ता के लिए इतिहास में अमर हो गईं। इससे पता चलता है कि स्त्री को वीरता और दृढ़ता दिखाने की प्रेरणा मां दुर्गा से मिलती है। यह मातृका पूजन भारत में सभी धर्मों में मान्य है। गुरु गोविंद सिंह तो वीरता और दृढ़ता के प्रतीक थे और इसके लिए वे भगवती की पूजा करते थे। उन्होंने अपनी तलवार को भवानी कहा था। जैन दर्शन में भी मातृका पूजन का विशेष महत्व है। बौद्धों में देवी तारा से लेकर कई देवियां हैं। दरअसल मातृसत्ताक समाज में स्त्री का विशेष महत्व था। और इस बात का प्रतीक है नवरात्रि का पूजन। इसीलिए नवरात्रि पूजन में कन्या भोजन या कंजकां खासतौर पर आयोजित की जाती हैं। इस तरह पता चलता है कि भगवती की उपासना कहीं न कहीं वीरोपासना है। हर समाज वीरोपासक होता ही है। मगर हिंदू समाज में वीरोपासना का अर्थ ही भगवती-भवानी और मां दुर्गा की पूजा है। ये देवियां शक्ति की प्रतीक हैं और शक्ति की वाहक हमारे यहां स्त्री को माना गया है। इसलिए भारतीय समाज में स्त्री पूजा का इतना महत्व है। कहा ही गया है कि जहां स्त्री की पूजा होती है, वहीं देवता वास करते हैं। इसलिए स्त्री का सम्मान है इस देवी पूजा के पीछे। हमें अपनी मातृकाओं की पूजा करनी ही चाहिए। राम ने भी रावण को मारने के पूर्व शक्ति की आराधना की थी और शक्ति ने प्रकट होकर उन्हें विजयी होने का आशीर्वाद दिया था। गुरू गोविंद सिंह भी हर युद्ध के पूर्व शक्ति की आराधना किया करते थे। इसलिए हमारे समाज में हर कोने पर शक्तिपीठ मौजूद हैं। कामाख्या से लेकर सुदूर दक्षिण तक कन्याकुमारी में भी। शक्ति ही मनुष्य के सरवाइवल का प्रतीक है। शक्ति है, इसलिए हम जीवित हैं इसलिए शक्ति की आराधना और स्त्री रूपी शक्ति का सम्मान करना चाहिए। स्त्री मनुष्य के हर तरह की सिद्धि की प्रतीक भी है। मनुष्य जीवन में जिस किसी की भी चाह करता है, उसे शक्ति ही पूरा कर पाती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि हमारा समाज शक्तिपूजक है।